पतंग

उड़ने से पहले फड़फड़ाती  है , ऊंचा पहुंच कर अपना रंग दिखलाती है ।

है अगर पकड़ मजबूत साधने वाले की , ढील पाकर ऊंचा और ऊंचा उड़ जाती ।
खुद आसमा में है जब तक , तब तमासबीनों  के लिए तमासा बन जाती है ।।

है डोर में ताकत ,लेकिन खुद मद से चूर हो जाती है ।
जुदा कर किसी को , किसी अपने से आसमान में कलाबाजियां दिखती है ।।

भूल है उसकी , छलावे की है ताकत , झूठा है ये ऊंचाइयों का छूना !
जिस अहम में वो काट रही है अपनो को ,चढ़ती जा रही मंजिल पर मंजिल अपने सपनों  को ।

जितना लोगो को काट रही है , उतना उसकी डोर भी कटती जा रही है ।
ये बात उस आसमा में बैठी, अभिमानी को समझ ना आ रही है ।

बात तो पतंग की कर रहा हूं ,पर न जाने क्यों 
पतंग में भी इंसान की शख्सियत नज़र आ रही है।

अपनो को गिराकर ये भी तो उठता जाता है , 
गिरता ऊंचाई से  , तो किसी अपने को ही संभालता हुआ पता है ।
संभाल तो लेता है वो , पर क्या उसमे पहले जैसा अब अपना पन पता है वो ।

पतंग में देखा जाए कुछ ऐसा ही होता , उड़ती तो आसमा में है दोबारा , पर बीच में कही गांठ पड़ जाती है । ।

...sVs...





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