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रण

खुद के रण में, मैं खुद, विचलित हूँ दिया तो समय समर फुक है युद्ध का है घोर अधेरा, इन अधेरो में में वितलित दूँ चल जाऊँगा तपते अंगारो पर, अगर विजय पथ उस ओर जाता है इस रण में सिर्फ विजय चाहिए ये मन को भाता है मन घायल है, मन्थन अभी भी चल रहा देख खुद के सजाए रण में सौरभ आज जल रहा है. जिस ओर कदम बढ़ाता है, जीत के सन्मुख होके भी पूरीजीत न पाता है। क्या क्या युद्ध कलाओं निपुण न था. वो या मंत्र संधान में क गलती हुई है हैं योनि राक्षस की खुद को जीता मानव बनाया है. या फिर अधूरा ग्यान था जिससे हार की, फलती हूँ उससे लड़ता वो हर क्षण मन में बोझ सा ढोता है हर हार के बाद किरदार खराब होता है हाँ ये सौरभ भी रोता है। किसे तो अपनी त्यपा बतलाए, किये मे थे किस-किस को लो. ये किस्मत के खेल वाली कथा सुनाए। उससे बेहतर है तो अभ अनुधार हो बहाए) में ही वह जाए।