मुसाफ़िर
चल मुसाफ़िर तुझे दूर जाना है !
रात की गहराइयों में खोकर , ना जाने किस किस सपने को अपना बनाना है ।
अल्फाजों की रंगत से न जाने और कितने पन्नो को रंगीन बनाना है ।।
चल मुसाफ़िर तुझे दूर तक जाना है !
मुस्किले तो आती रहेंगी , क्या इनसे तुझे हार जाना है ।
अरे हालातो से भी तो उबर कर आना है ।।
उठ जा ओ मुसाफिर ,तुझे दूर तक जाना है !
तू सौरभ है इस उपवन का , तुझे इस जग को भी तो महकाना है ।
गगन चूमती इन इमारतों पर अपना भी तो ठिकाना बनाना है ।
चल मुसाफ़िर दूर जाना है !
हर रोज एक एक कदम आगे बढ़ाना है ।
थकने न दे खुद को ऐसे लड़ते हुए खुद से आगे बढ़ जाना हैं। ।
चल ओ तुझे दूर तक जाना है !!
पहले कदम पर मन तुझे बहलाएगा , तुझे मन को बहलाना है ।
सोच तेरे पीछे आने वालों के रास्तों को भी तो तुझे आसान बनाना है ।।
कविता में अब प्रेम न लिख , कविता को ही प्रेम बनाना है ।।।
उठ मुसाफ़िर तुझे दूर जाना है !
हर हार का जश्न मनाना है ,राह पर पड़े कंकड़ को चूम कर माथे पर लगाना है ।
कंकड़ कंकड़ जोड़ कर ,तुझे आशियाना बनाना है ।।
अरे क्या कठिन है इसमें ,ये कहते हुए आगे बढ़ जाना है ।।।
चल मुसाफ़िर तुझे दूर तक जाना है !!!
...sVs....
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