वक्त
कभी वक्त था तो वक्त ना था ,डरते थे कहने से ।
मुस्किल में होते वो , तब डरते थे उनकी मुस्किल सहने से ।।
वो रोज अदब से सुबह सर नवाते थे , क्या था वो वक्त हम डर से उनके सामने नज़रे नही उठाते थे ।
चढ़ते हुए हम उनके आंखों में अपने सपने पाते ।
शायद गैरत हम से थी, ना तो हम उनको शब में न छोड़ आते ।।
वक्त तो दोनो का था ,दोनो मुनासिब भी ।
लेकिन उस वक्त की पहचान न थी ,
मुस्किल तमाम पर इस रस्क में जान न थी ।
क्या मुमताज़ , क्या ताज , उसकी फितरत में तो कोहनूर था।
शायद आज उसकी निगाहों में उसका नूर था ।।
शब उतरी , शबनम का जुनून उतरा ।
फितरत बदली फिकर का सुकून बदला ।।
अब न शब है ,ना शबनम।
अब सिर्फ मुस्कराती फितरत और हंसते फरिस्ते।।
...sVs...
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